सातवीं शताब्दी के इस लोकप्रिय संस्कृत प्रहसन का हिंदी अनुवाद नेमिचंद्र जैन ने किया है। नाटक की परिकल्पना एवं निर्देशन हितेश भार्गव द्वारा की गयी। नाटक में सभी कलाकारों ने दर्शकों को अपनी भूमिका से प्रभावित किया। नाटक में दार्शनिक तथा धार्मिक अवधारणाओं के द्वारा दिखाया गया कि जीवित प्राणी का गैर-भौतिक सार जैविक मृत्यु के बाद एक अलग भौतिक रूप या शरीर में एक नया जीवन शुरू करता है। पुनर्जन्म से जुड़ी अधिकांश मान्यताओं में, मनुष्य की आत्मा अमर है और भौतिक शरीर के नष्ट होने के बाद नष्ट नहीं होती है। मृत्यु के बाद, आत्मा अपनी अमरता को जारी रखने के लिए केवल एक नवजात शिशु या एक जानवर में परिवर्तित हो जाती है।
भगवदज्जुकम में, परिव्राजक एक संन्यासी है जो एक सिद्धयोगी ज्ञानी और जानकार व्यक्ति है और जिसने योग-सिद्धि प्राप्त कर ली है। उनके साथ शांडिल्य नाम का एक शिष्य भी है, जो अपने चंचल स्वभाव के कारण विचलित है। ध्यान और पढ़ाई में उसकी रुचि नहीं है। आरंभिक दृश्य में परिव्राजक और उनके शिष्य शांडिल्य के बीच आत्मा और शरीर के बारे में लंबी चर्चा होती है। परिव्राजक को भौतिक जगत से विरक्ति है, परंतु शांडिल्य गुरुदेव की शिक्षाओं से दुःखी हैं। सुंदर वृक्षों और विभिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों से सजे उपवन में गुरु-शिष्य घूमते-फिरते और उपदेश देते हैं। तभी एक स्थान पर गुरु ध्यानमग्न हो जाते हैं और शांडिल्य वसंतसेना नाम की एक सुंदर गणिका को अपनी सखियों के साथ इस उद्यान में प्रवेश करते हुए देखता है।
वसंतसेना अपने प्रेमी रामिलक से मिलने के लिए इस उद्यान में आती है। कुछ ही समय में, यमराज का एक दूत (यमदूत) वसंतसेना के प्राण लेने के लिए वहां आता है। वह सर्प बनकर बगीचे में बैठी वसंतसेना के प्राण ले लेता है। तब शांडिल्य वसंतसेना के मृत शरीर को देखकर दुखी हो जाता है और गुरु से उसे पुनर्जीवित करने की प्रार्थना करता है।
गुरु के बार-बार समझाने पर भी जब वह नहीं समझता है तो गुरु अपने शिष्य को योग की शक्ति दिखाने के लिए उसकी आत्मा को वैश्या के शरीर में प्रवेश करा देते हैं। इससे गुरु का शरीर मृत हो जाता है और वैश्या जीवित हो उठती है। तभी वैश्या की माँ, प्रेमी रामिलक, वैद्य और अन्य सभी लोग वहां आ जाते हैं। फिर यमदूत प्रवेश करता है क्योंकि जिस वसंतसेना के प्राण उसने लिए थे वह कोई और थी। वह वसंतसेना के प्राण वापस लाने के लिए आता है लेकिन वह देखता है कि जिस वसंतसेना के प्राण उसने ले लिए थे वह एक संन्यासी की तरह सभी को उपदेश दे रही है। यमदूत वैश्या के प्राण संन्यासी के शरीर में डाल देता है। अब संन्यासी वैश्या वसंतसेना की तरह व्यवहार करने लगता है और वसंतसेना संन्यासी की तरह व्यवहार करने लगती है।
भगवान (संन्यासी) के शरीर और अज्जुका (गणिका) की आत्मा के साथ मिश्रित यह संयोजन भगवदज्जुकम है। आत्मा और शरीर का आदान-प्रदान नाटक में एक अतार्किक, हास्यपूर्ण और दिलचस्प स्थिति पैदा करता है। अंत में यमदूत के आने पर उन दोनों का शरीर पुनः ज्यों का त्यों हो जाता है। साथ ही शिष्य मोह-माया से मुक्त होकर गुरु के प्रति समर्पित हो जाता है। जैसा मन, वैसी वाणी और वैसा ही शरीर का आचरण। यह नाटक जीवन के गंभीर सवालों का बहुत ही सरल तरीके से उत्तर देता है। इसके साथ ही नाटक यह भी सिखाता है कि किसी भी विषय को उपदेश से नहीं बल्कि अभ्यास से बेहतर ढंग से सीखा जा सकता है।
नाटक में परिव्राजक की भूमिका में निखिल भारती, शांडिल्य की भूमिका में हरीश कुमार, वसंतसेना की भूमिका में भारती, माँ की भूमिका में छाया, यमदूत की भूमिका में अश्वनी, सूत्रधार -निहाल, वैद – रोहित, रामिलक – संजय, सखियाँ की भूमिका में अनामिका, अंजलि तथा मनीषा ने अभिनय से प्रभावित किया। संगीत निर्देशन लेख राम गंधर्व ने किया। हारमोनियम में संजय पुजारी, तबले में अनूप ने समां बांधा।