हिमालय में जलविद्युत निर्माण से पर्यावरणीय संकट व नुकसानों को उजागर करती रिपोर्ट
‘विश्व पर्यावरण दिवस’ माह में, हिमधरा पर्यावरण शोध समूह ने हिमालयी क्षेत्र खासकर, हिमाचल प्रदेश, में जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण से जुड़े खतरों को उजागर करते हुये “द हिडन कॉस्ट ऑफ़ हाइड्रो पावर” नामक रिपोर्ट जारी की। पिछले कुछ वर्षों में बहुत से ऐसे प्रमाण सामने आये हैं जिनसे पता लगता है की जल विद्युत का उत्पादन ‘क्लीन और ग्रीन’ यानी पर्यावरण के अनुकूल नहीं है। इस दस्तावेज में रन-ओफ़-द रिवर जल विदयुत परियोजनाओं के लिये भूमिगत निर्माण कार्य से होने वाले पर्यावरणीय संकटों व खतरों के ज़मीनी अनुभवों, प्रमाणों व इस विषय में हुए अध्ययन को संकलित किया गया है।
भौगोलोलिक संवेदनशीलता व जलवायु परिवर्तन सम्बन्धित आपदाओं जैसे बाढ़ (फैल्श- फल्ड), बादल फटने से ग्रसित नाज़ुक हिमालयी क्षेत्र में निर्माण और विकास की गतिविधियाँ इस नाजुकता को और बढ़ाती हैं। रिपोर्ट के अनुसार “खुद राज्य सरकार के आपदा प्रबन्धन सेल की रिपोर्ट बताती है की लगभग 10 बड़ी जल विद्युत परियोजनायें मध्यम व उच्च-जोखिम भूस्खलन क्षेत्र में आती हैं”। रिपोर्टबताती है की जलविद्युत परियोजनाओं के भूमिगत हिस्से के निर्माण कार्य काफी व्यापक हैं और इनके के लिये किये जाने वाली ब्लास्टिंग व धमाके से होने वाले नुकसानों व दुष्प्रभावों की वैज्ञानिकों को भी पूरी समझ नहीं और इस पर जो भी अध्य्यन है वो पर्याप्त नहीं है। प्रभावों को दर्शाने के लिये रिपोर्ट में पिछले कुछ वर्षों में किन्नौर, कुल्लू और चम्बा जिलों के परियोजना प्रभावित लोगों के बयानों व चित्रों (फोटोग्राफ) का प्रयोग किया है। पारबती-2, करछम वांगतु, काशांग व बजोली-होली परियोजनाओं के अध्य्यन से पताचलता है की किस प्रकार भूस्ख्लन, चशमों (प्राक्र्तिक जल स्रोतों) के सुखने, घरों में दरारें पड़ने, खेतों व जंगल के नुकसान से स्थानीय लोगों का जीवन कष्टमय हुया है।
जल विद्युत परियोजनाओं की पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट में परियोजना स्थल की भू-गर्भीय व भूक्मपीय नाजुकता पर ज्यादा ध्यान न देते हुये, पहाड़ी संरचना से किसी भी प्रकार की ‘रुकावट’, को हलके में ले कर बाद में संभालाने के लिए छोड़ दिया जाता है। बाद में जब स्थानीय जनता की शिकायतें आने लगती हैं तो उनसे “वैज्ञानिक” प्रमाण माँगा जाता है. जबकि पर्यावरण प्रभाव आंकलन रिपोर्ट को बनाते वक्त यथास्तिती का गहराई से अध्ययन करने के बजाय पुरा ध्यान जल्द से जल्द विभागों को रिपोर्ट सौंपने और’मंजूरी’ लेने पर होता है। उरनी गांव, जो कि करछम- वांगतू परियोजना से प्रभावित है और बड़े से भूख्लन के ऊपर स्थित है, के रामानन्द नेगी के अनुसार “वो (सरकार व परियोजना प्रशासन) कहते हैं की इस भूस्खलन का वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है जिसकी वजह से हम घरों में पड़ी दरार व खेतों के नुकसान की भरपाई के लिये मुआवजे की मांग भी नहीं कर सकते”।
रिपोर्ट भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (सी.ए.जी) का हवाला देते हुये बताती है की किस प्रकार भौगोलिक आपदाओं से हो रहे नुक्सान की कीमत प्रभावित लोगों या आम जनता(पब्लिक मनी) पर लाद दि जातो है। पिछ्ले कुछ वर्षों में इन परियोजनाओं में हो रहे आर्थिक घाटे व बैंकों के ऋणों को न लौटाने की वजह से पुरा जलविद्युत क्षेत्र आज घाटे में है। रिपोर्ट के मुताबिक जलविद्युत सेक्टर का योगदान पूरे देश में पिछले दशक के अपेक्षा 25% से घट कर 13 % पर पहुँच गया है। जलविद्युत परियोजनाओं की यह स्थिति के चलते उर्जा क्षेत्र की समीक्षा करने वाली संसदीय समिति ने जविद्युत निति पर पुनर्विचार किया तो सही पर इसमें भी पर्यावरणीय प्रभावों और इन परियोजनाओं के खतरों की अनदेखी की गयी. समिति द्वारा 2018 में लोक सभा में पेश की गयी रिपोर्ट की संस्तुतियों के आधार पर मार्च 2019 में विद्युत मंत्रालय ने आदेश जारी किया जिसमें 25 मेगावाट से अधिक क्षमता वाली परियोजनाओं को भी ‘अक्षय’ ऊर्जा का स्रोत माना है, जिससे इन परियोजनाओं को विभिन्न आर्थिक सब्सिडी मुहैय्या हो सकें। जबकि,हिमधरा की रिपोर्ट के अनुसार जलविद्युत परियोजनाओं को अक्षय ऊर्जा की मान्यता देना और प्रयावार्ण के अनुकूल मानना बन्द करना चाहिये और सरकार को जलविद्युत परियोजनाओं की सबसिडी पर रोक लगानी चाहिये, खासकर बड़ी परियोजनाओं के लिये।
यह रिपोर्ट प्रशासनिक असफलताओं और निम्न विभागों द्वारा दी गयी ढील पर भी प्रकाश डालती है: केन्द्रीय जल आयोग, केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण, जो कि इस परियोजनाओं की निगरानी के लिए जिम्मेवार है; पर्यावरण मंत्रालय जो उपरोक्त प्रभावों व गैर-अनुपालनाओं की अनदेखी करते हुये पर्यावरण व वन मंजूरी जारी करता रहा, राज्य के ऊर्जा निदेशालय व राज्य आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण, जो कि परियोजना निर्माण में लापरवाही नहीं रोक पाए नाहीं इन पर कोई कार्यवाही की।
हिमालयी क्षेत्र में जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा कर इनके तात्कालिक व दीर्घकालीक प्रभावों की स्वतंत्र वैज्ञानिक समीक्षा करनी चाहिये। नागरिक सहभागिता, लोक परामर्श की प्रक्रिया को मजबूत और स्थानीय जनता के लिए शिकायत निवारण करने कीप्रक्रिया को लागू करना चाहिये