संतोष शर्मा
आधुनिक समय में “दान” शब्द कुछ अजीब सा नहीं लगता, हम सबको । दान, कहते ही पता नहीं कितनी तरह की प्रतिक्रियाएं आपको सुनने को मिल जाए । लेकिन किसी एक कॉमन प्रतिक्रिया की बात करें तो यह सब के मुंह से सुनने को मिल सकती है —‘अजी पैसा कहां आता है और कैसे चला जाता है, पता ही नहीं चलता अपना ही गुजारा चल जाए, यही बहुत है’। कुछ तो यह भी बोल देंगे । जनाब सरकार से ही बच जाएं यही काफी है । पिछले साल एक लाख तो इनकम टैक्स ही कट गया। यानी ना देने के लिए यह भी कहेंगे कि दान तो दे दें पर अब वोह साधु संत नहीं जो दान के सुपात्र हो । अब तो अपंग भी नकली रूप धारण करके सड़कों पर बैठे जनता को ठग रहे हैं। किसी संस्था को दें तो वह भी सब पैसे खाऊ। फिर ऐसे लोगों का घर भरने से तो अच्छा है हम ही मौज कर ले ।
अतः दान कहते ही विविध मनोव्रतियों के लोगों पर कैसी- कैसी प्रतिक्रिया होती है यह हम रोज सुनते हैं । अनुभव के लिए कभी निकलो समाज में आप भी । लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी दान की भावना का महत्व कम नहीं हुआ है। समाज में आज भी ऐसे सज्जन महापुरुष हैं जो एक ही बात कहते हैं। ” देते रहो ,देते रहो ” । मानव जीवन तो देने के लिए मिला है जब देंगे तभी तो मिलेगा हमें भी । परोपकार ही सब कर्मों का सार है। दान देने के लिए सु-स्थिती की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी सु-मन की । आज हमें यह मानना ही होगा कि कुछ राजनयिक लोगों , मंदिर मठ वालों तथा अनन्य संस्थाओं ने इस दान रुपी शब्द को कलंकित किया है । तो क्या हम दान करना छोड़ दें, कदापि नहीं । बरसात के दिनों में पानी गंदला आता है, तो क्या हम उसे पीना छोड़ दें, नहीं ना । यही बात दान के लिए लागू होती है।
महापुरुषों ने दान को इस तरह से समझाया है कि “दान” यानी अपनी शक्ति के अनुसार अपनी आय का वितरण करना । दान करती बात मन में यह विचार रहना चाहिए कि प्रभु जिस कार्य के लिए आपने हमें नियुक्त किया है, उसे हमने मन लगाकर किया तथा उसके बदले जो मिला , वह सब आपका ही है जिसे हम दान कर रहे हैं । सज्जन लोग कहते भी हैं कि दान करती बार दूसरे हाथ को भी पता नहीं लगना चाहिए कि हम क्या दे रहे हैं । अर्थात अहंकार लेश मात्र भी नहीं चाहिए । हम दान देते हैं तो किसी पर उपकार नहीं करते बल्कि अपने ऊपर ही उपकार होता है । इस बात को हम एक कहानी के माध्यम से समझने का प्रयत्न करते हैं।
एक मठ में बेघर लोगों को आश्रय देने का प्रबंध था । वर्षा काल निकट होने के कारण मठ सन्यासियों ने धनी सज्जन के पास जाकर गुहार लगाई कि हमारे यहां निराश्रितों के निवास की व्यवस्था है अतः आप हमें कुछ चद्दर , कंबल आदि दें तो हमारे लिए अच्छा हो जाएगा । उस व्यक्ति के पास बहुत बढ़िया बस्तर ओढने और बिछाने के थे । मगर बह सोचने लगा कि “यह दें -नहीं बह दें -नहीं । बस इसी उधेड़बुन में लगा रहा । आखिर उसने एक फटा कंबल और दरी उस सन्यासी को दी ।जबकि उसके पास प्रचुर मात्रा में नयी दरियां, चादरें और सिरहाने उपलब्ध थे । सन्यासी ने इस कट्टी फट्टी दरी और चादर को सहर्ष स्वीकार किया। संयोग से उसी रात तूफान आंधी में उस धनी सज्जन के घर पर आसमानी बिजली गिरी। आग और पानी के कारण सब नष्ट हो गया । बस बचा तो मिट्टी के ढेर से वह धनी व्यक्ति। संयोग से आश्रय के लिए वह व्यक्ति उसी मठ में पहुंचा । सन्यासी ने प्रेम से उसका स्वागत करके उन्हें यथा स्थान पर उनका रहने का प्रबंध कर दिया । तो उसे वहां उसी की दी हुई दरी और फटा कंबल मिला । तब उस व्यक्ति का माथा ठनका कि यदि मैंने प्रातकाल आए उस सन्यासी को अच्छे गलीचे दरियां, चद्दर देता तो कितना अच्छा होता । कम से कम वह नष्ट होने से तो बच जाते । इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि दान हम लोगों को नहीं बल्कि अपने आप को ही देते हैं ।
दान देने के लिए अपने अंदर, सेवक भाव , धैर्य और आत्मविश्वास जैसे गुणों का होना अति आवश्यक है । इंसान ताउम्र कमाता है और जोड़कर रखता है लेकिन अंत समय में वोह खाली ही इस संसार से जाता है । हिन्दुस्थान पर बार बार आक्रमण करके महमूद गजनी ने मरते समय जब उस अपार धन के ढेर को देखा तो वह दहाड़ मार – मार कर रोने लगा कि मैं कुछ भी साथ नहीं ले जा सकता। ऐसी वृत्ति वाले लोग दान नहीं कर सकते । दूसरों को देने की वृत्ति मानवता का लक्षण है और यह मनुष्य के अलावा अन्य प्राणियों में नहीं होती । मनुष्य के अंतः करण में सहानुभूति होती है । उसी के परिणाम स्वरुप वह दूसरों की सहायता करता है ।
वर्तमान परिदृश्य में जब पूरा भारत और विश्व कोरोना महामारी से ग्रसित है, काम धंधे बंद हैं ,उसमें हमारा यह दायित्व बनता है कि हम हर उस गरीब की मदद करें, जिसको आपकी सहायता की जरूरत है । हो सकता है आपके द्वारा दी गई इस दान सहायता राशि से किसी गरीब के बच्चे को दो घूंट दूध मिल जाए । यह सहायता किसी भी रूप में की जा सकती है ।आज प्रतिदिन भारत को करोड़ों का नुकसान उठाना पड़ रहा है । सरकार के पास भी साधन सीमित हैं । अतः सरकार ने जो भी निर्णय लिए हैं या भविष्य में लेगी, उन निर्णयों को हमें सहर्ष स्वीकार करना चाहिए । वेतन, पेंशन आदि में कुछ समय के लिए कटौती स्वीकार करके यह संकल्प लेना चाहिए कि इस संकटकाल में कोई भारतीय परिवार भोजन से वंचित ना रहे । हमारा यह देश अब “इंडिया ” नहीं भारत माता है अतः अपनी मां का सर हम कभी झुकने नहीं देंगे l यह प्रण हम सब भारतीयों के मन में होना चाहिए हमारे देश में सर्वस्व का त्याग करने वाले को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है । अतः इन परम्पराओं को बनाए रखना आज समय की जरूरत है।
लेखक बीएसएनएल से सेवानिवृत है और अपने समय का सदुपयोग अपनी सोच को कलम के माध्यम से समाज की सोच को बदलने के लिए कर रहे है l आभार