इस बार प्रदेश चुनाव का प्रचार शुरू होते ही रिवाज बदलने के नारे गूंजने लग गए थे और भाजपा ने इसे मूर्त रूप देने में कोई कोर कसर भी नहीं छोड़ी ‘अब ये बात चुनावी नतीजे आने के बाद पता चलेगी कि भाजपा सरकार बदलने के इस रिवाज को खत्म कर पाती है या नहीं । लेकिन एक बात तय है कि रिवाज हर हाल में बदलने वाला है,भाजपा नहीं तो काँग्रेस इस नारे को जीवित रखेगी । आजतक काँग्रेस में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के रहते सरकार के मुखिया का फैसला केवल विधायक दल करता था और प्रदेश के नेता ही उस पर मुहर लगाते थे या यूं कहें कि जो वीरभद्र चाहते थे आखिरी फैसला वही होता था लेकिन अब स्थिति बिल्कुल विपरीत है काँग्रेस का हर नेता खुद को मुख्यमंत्री की दौड़ में मान रहा है वो भले ही विधानसभा की दहलीज एक या दो बार ही पार कर पाया हो । इस बार केंद्र के हस्तक्षेप के बगैर काँग्रेस का मुख्यमंत्री बनता नजर नहीं आ रहा है ऐसे में काँग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व ने पार्टी के सत्ता में आने पर मुख्यमंत्री पद का फैसला अपने हाथ में ले लिया है जिसकी कवायद भी शुरू हो चुकी है । चुनाव नतीजों से पहलेे ही कांग्रेस के मुख्यमंत्री के दावेदारों में दिल्ली की होड़ लगी हुई है। कांग्रेस में मुख्यमंत्री के दावेदारों की संख्या मंत्रीमंडल की संख्या (12) से भी ज्यादा हो गई है। हालांकि अभी कई दावेदारों का जीतना भी तय नहीं है, फिर भी दिल्ली में लॉबिंग करने में लगे हुए हैं । आलम यह है कि अगर काँग्रेस सरकार बनाने जैसी स्थिति में आती भी है तो यह तय करना काँग्रेस के संगठन के लिए बेहद मुश्किल होगा की आखिर प्रदेश की जिम्मेवारी किसे सौंपी जाए ।यहाँ स्थिति एक अनार सौ बीमार जैसी हुई पड़ी है । मुख्यमंत्री पद के लिए भी कमोबेश पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष की तरह बनी हुए है जिसमें काँग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व को संगठन में अंतर्कलह को रोकने के लिए कार्यकारी अध्यक्षों की फौज खड़ी करनी पड़ी नतीजतन पार्टी का संगठनात्मक कुनबा एक एक कर बिखरता गया और एक के बाद एक दो कार्यकारी अध्यक्ष पार्टी का दामन छोड़ अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी दल भाजपा में शामिल हो गए ।
अब ये देखना दिलचस्प होगा कि कार्यकारी अध्यक्षों की तरह ही विद्रोह को रोकने के लिए क्या सरकार में भी एक मुख्यमंत्री के साथ कई कई उप या कार्यकारी मुख्यमंत्री बनाने पड़ेंगे । प्रदेश के लिए अपने आप में जहां ये एक रोमांच का विषय होगा वहीं हिमाचल के संदर्भ में कांग्रेस हाईकमान के लिए भी यह नया अनुभव रहेगा । कांग्रेस में अब वीरभद्र सिंह जैसा कोई नेता नहीं है। यही वजह है कि सब दिल्ली के सहारे मुख्यमंत्री बनना चाह रहे है भले ही विधायकों का समर्थन हो न हो।जिन लोगों ने मुख्यमंत्री की दौड़ में खुद को शामिल कर दिल्ली दरबार में हाजिरी लगानी शुरू की है उनके लिए सबसे बड़ी मुश्किल कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व खासकर पार्टी की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा गांधी की ओर से रखी गई 8 शर्ते आड़े आ रही हैं जिसमें भ्रष्टाचार के आरोप में घिरी प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा सिंह पहले ही बाहर हो जाती है जबकि 20 साल तक पार्टी को जोड़े रखने की दूसरी शर्त पर कौल सिंह ठाकुर, धनीराम शांडिल और चंद्र कुमार जैसे उम्र दराज नेता दूसरी बॉल में ही आउट हो रहे हैं । अब बचे कुलदीप राठौर ,सुखविंदर सिंह सुक्खू, मुकेश अग्निहोत्री और हर्षवर्धन चौहान सरीखे नेता जिनके लिए अपनी सीट निकालना ही टेढ़ी खीर बनी हुई है और अगर मान लिया जाए यह चारों नेता जीत भी जाते हैं तो इनके सामने प्रियंका की सभी नेताओं को साथ लेकर चलने वाली शर्त ही फन फैलाकर खड़ी है। कुल मिलाकर नतीजा यह है कि कांग्रेस सत्ता के नजदीक आते-आते अभी भी कुर्सी से कोसों दूर जा सकती है और ऐसे में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि चाणक्य से भरी भाजपा कांग्रेस पर 21 साबित होकर भारी पड़े और अपने नारे पर कायम होकर प्रदेश का रिवाज बदले…
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